मेरी डायरी के पन्ने
- 7 Posts
- 6 Comments
सहनशीलता से परिपूर्ण हूँ ना मैं?
शायद दुर्बलता और हताशा से भी?
सारे ख्वाब बिखर गए मेरे
ग़मों के सैलाब सब बिखेर गए
जैसे हवा का झोंका सूखे पत्तों को
मैं विवश और निराश देखती रही
पुरुष प्रधान इस देश में
एक अबला नारी जो हूँ मैं.
………
आखिर डर है भी तो किस से
रक्षा का दम्भ भरने वाले पुरुषों से
हास्यपद है मगर यही सच है
भोगने कि एक वस्तु हूँ इनके लिए
मुझे कमजोर रखकर कि है
मेरी रक्षा करने कि असफल कोशिश
उसने भी लुटा जिसे अपना मन
कीमत नहीं जानी मेरे समर्पण की.
………
इतिहास कई बार दोहराए मैंने
सामना भी किया उस भय का
जब जब चाहा इतिहास बदला
फिर भी कमजोर और असहाय समझा
रुकावटें पैदा कि मेरे रास्ते में
मुझे आगे बढ़ने से रोका पुरुष ने
और निर्बल बना अहसास कराया
कि मैं एक अबला नारी हूँ.
_____
Read Comments